वंदहु वंदहु जिणु भणइ को वंदउ हलि इत्थु ।
णियदेहाहं वसंतयहं जइ जाणिउ परमत्थु ॥42॥
अन्वयार्थ : कोई कहता है कि हे जीवों! तुम जिनवर को वन्दो.. वन्दो! परन्तु यदि अपने देह में ही स्थित परमार्थ को जान लिया, तो फिर भला अन्य किसकी वन्दना करना शेष रहा ?