मणु जाणइ उवएसडउ जहिं सोवेइ अचिंतु । अचित्तहो चित्तु जो मेलवइ सो पुणु होइ णिचिंतु ॥47॥
अन्वयार्थ : मन चिन्ता-रहित (निश्चित) होकर जब सो जाता है (एकाग्र होकर थम जाता है) तभी वह उपदेश को समझ सकता है और अचित्त वस्तु से अपने चित्त को जो अलग करता है, वही निश्चिन्त होता है ।