मूढा सरलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ ।
जीवहु जंत ण कुडि गइय इउ पडिछंदा जोइ ॥52॥
अन्वयार्थ : रे मूढ ! ये सब (शरीरादिक संयोग) तो कर्म-जंजाल है, वे कोई निष्कर्म (स्वाभाविक) नहीं है । देख ! जीव चला गया, किन्तु देह-कुटीर उसके साथ नहीं गई--इस दृष्टान्त से दोनों की भिन्नता देख ।