जरइ ण मरइ ण संभवई जो परि को वि अणंतु ।
तिहुवणसामिउ णाणमउ सो सिवदेउ णिभंतु ॥54॥
अन्वयार्थ : जो न जीर्ण होता है, न मरता है, न उपजता है, जो सबसे पर, कोई अनंत है, त्रिभुवन का स्वामी है ओर ज्ञानमय है, वह शिवदेव है--ऐसा तुम निर्भ्रान्त जानो ।