सिव विणु सत्ति ण वावरइ सिउ पुणु सत्तिविहीणु ।
दोहिं मि जाणहिं सयलु जगु बुज्झइ मोहविलीणु ॥55॥
अन्वयार्थ : शिव के बिना शक्ति का व्यापार नहीं हो सकता और शक्ति-विहीन शिव भी कुछ कर नहीं सकता; इन दोनों का मिलन होते ही मोह का नाश होकर सकल जगत का बोध होता है । (गुण-गुणी सर्वथा भिन्न रहकर कुछ कार्य कर सकते नहीं; दोनों अभेद होकर ही कार्य कर सकते हैं--ऐसा वस्तुस्वरूप और जैन-सिद्धांत है।)