णिच्च णिरामउ णाणमउ परमाणंदसहाउ ।
अप्पा बुज्झिउ जेण परु तासु ण अण्णु हि भाउ ॥57॥
अन्वयार्थ :
नित्य, निरामय, ज्ञानमय परमानंदस्वभावरूप उत्कृष्ट आत्मा जिसने जान लिया, उसको अन्य कोई भाव नहीं रहता ।
(ज्ञान से अन्य समस्त भावों को वह दूसरे का समझता है ।)