चिंतइ जंपइ कुणइ ण वि जो मुणि बंधणहेउ । केवलणाणफुरंततणु सो परमप्पउ देउ ॥60॥
अन्वयार्थ : जो मुनि बन्धन के हेतु को न चितन करता है, न कहता है ओर न करता है, (अर्थात् मन से, वचन से ओर काया से बंध के हेतु का सेवन नहीं करता) वही केवलज्ञान से स्फुरायमान शरीरवाला परमात्मदेव है ।