अब्भिंतरचित्त वि मइलियइं बाहिरि काइं तवेण ।
चित्ति णिरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण ॥61॥
अन्वयार्थ : यदि अभ्यंतर चित्त मैला है तो बाहर के तप से क्या लाभ ? अतः हे भव्य ! चित्त में कोई ऐसे निरंजन तत्त्व को धारण करो कि जिससे वह मैल से मुक्त हो जाय ।