देहमहेली एह वढ तउ सत्तावइ ताम ।
वित्तु णिरंजणु परिण सिहुं समरति होइ ण जाम ॥64॥
अन्वयार्थ : हे वत्स ! जब तक तेरा चित्त निरंजन परमतत्त्व के साथ समरस (एकरस) नहीं होता, तब तक ही देहवासना तुझे सताती है ।