अप्पा मिल्लिवि गुणणिलउ अण्णु जि झायहि झाणु ।
वढ अण्णाणविमीसियहं कहं॑ तहं केवलणाणु ॥67॥
अन्वयार्थ :
तू गुणनिलय आत्मा को छोड़कर ध्यान में अन्य को ध्याता है, परन्तु हे मूर्ख ! जो अज्ञान से मिश्रित है, उसमें केवलज्ञान कहाँ से होगा ?