अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सयलु ववहारु ।
एक सु जोइय झाइयइ जो तइलोयहं सारु ॥68॥
अन्वयार्थ :
केवल आत्म-दर्शन ही परमार्थ है और सब व्यवहार है । तीन-लोक का जो सार है ऐसे एक इस परमार्थ को ही योगी ध्याते हैं ।