अन्वयार्थ : हे योगी ! कर्म तो स्वयं मिलते हैं और स्वयं बिछुड़ते हैं (क्षणभंगुर हैं) ऐसा निःशंक जान । क्या चंचल-स्वभाव के पथिकों से कहीं गाँव बसते हैं ? (जिसप्रकार पथिक तो रास्ते में मिलते हैं ओर बिछुड़ते हैं, उनसे कहीं गाँव नहीं बसते; उसी प्रकार संयोग-वियोगरूप ऐसे क्षणभंगुर पुद्गल-कर्मों से चेतन्य का नगर नहीं बसता । आत्मा को ये कर्म के संयोग-वियोग से भिन्न जानो ।