अण्णु जि जीउ म चिन्ति तुहं जइ वीहउ दुक्खस्स ।
तिलतुसमित्तु वि सल्‍लडा वेयण करइ अवस्स ॥74॥
अन्वयार्थ : हे जीव ! यदि तू दु:ख से भयभीत है तो अन्य (कर्म-नोकर्म) को जीव मत मान तथा अन्य का चिंतन मत कर, क्योंकि तिल के तुषमात्र भी शल्य अवश्य वेदना करती है ।