एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चया-
न्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः ।
स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे-
न्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः ॥27॥
अन्वयार्थ : [कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं] शरीर और आत्मा के व्यवहारनयसे एकत्व है, [तु पुनः] किन्तु [ निश्चयात् न] निश्चयनय से नहीं है; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं व्यवहारतः अस्ति] इसलिए शरीर के स्तवन से आत्मा-पुरुष का स्तवन व्यवहारनय से हुआ कहलाता है, [तत्त्वतः तत् न] निश्चयनय से नहीं; [निश्चयतः] निश्चय से तो [चित्स्तुत्या एव] चैतन्य के स्तवन से ही [चितः स्तोत्रं भवति] चैतन्य का स्तवन होता है । [सा एवं भवेत्] उस चैतन्य का स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह - इत्यादिरूप से कहा वैसा है । [अतः तीर्थकरस्तवोत्तरबलात्] अज्ञानी ने तीर्थंकर के स्तवन का जो प्रश्न किया था, उसका इसप्रकार नयविभाग से उत्तर दिया है; जिसके बल से यह सिद्ध हुआ कि [आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न] आत्मा और शरीर में निश्चय से एकत्व नहीं है ।