इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां
नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम् ।
अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य
स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव ॥28॥
अन्वयार्थ : [परिचित-तत्त्वैः] जिन्होंने वस्तु के यथार्थ स्वरूप को परिचयरूप किया है ऐसे मुनियों ने [आत्म-काय-एकतायां] जब आत्मा और शरीर के एकत्व को [इति नय-विभजन-युक्त्या] इस प्रकार नयविभाग को युक्ति के द्वारा [अत्यन्तम् उच्छादितायाम्] जड़मूल से उखाड़ फेंका है , तब अपने [स्व-रस-रभस-कृष्टः प्रस्फुटन् एकः एव] निजरस के वेग से आकृष्ट हुए प्रगट होनेवाले एक स्वरूप होकर [कस्य] किस पुरुष को वह [बोधः] ज्ञान [अद्य एव] तत्काल ही [बोधं] यथार्थपने को [न अवतरति] प्राप्त न होगा ?