(शालिनी)
वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ॥37॥
अन्वयार्थ : [वर्ण-आद्याः] जो वर्णादिक [वा] अथवा [राग-मोह-आदयः वा] रागमोहादिक [भावाः] भाव कहे [सर्वे एव] वे सब ही [अस्य पुंसः] इस पुरुष (आत्मा) से [भिन्नाः] भिन्न हैं, [तेन एव] इसलिये [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः] अन्तर्दृष्टि से देखनेवाले को [अमी नो दृष्टाः स्युः] यह सब दिखाई नहीं देते, [एकं परं दृष्टं स्यात्] मात्र एक सर्वोपरि तत्त्व ही दिखाई देता है -- केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ही दिखाई देता है ।