(मन्दाक्रान्ता)
ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरौष्ण्यशैत्यव्यवस्था
ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः ।
ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम् ॥60॥
अन्वयार्थ : [ज्वलन-पयसोः औष्ण्य-शैत्य-व्यवस्था] (गर्म पानी में) अग्नि की उष्णता का और पानी की शीतलता का भेद [ज्ञानात् एव] ज्ञान से ही प्रगट होता है । [लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति] नमक के स्वादभेद का निरसन (निराकरण, अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञान से ही होता है (अर्थात् ज्ञानसे ही व्यंजनगत नमक का सामान्य स्वाद उभर आता है और स्वाद का स्वादविशेष निरस्त होता है)[स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादेः भिदा] निज रस से विकसित होनेवाली नित्य चैतन्यधातु का और क्रोधादि भावों का भेद, [कर्तृभावम् भिन्दती] कर्तृत्व को (कर्तापन के भाव को) भेदता हुआ (तोड़ता हुआ), [ज्ञानात् एव प्रभवति] ज्ञान से ही प्रगट होता है ।