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अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जसा ।
स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् ॥61॥
अन्वयार्थ : [एवं] इसप्रकार [अञ्जसा] वास्तव में [आत्मानम्] अपने को [अज्ञानं ज्ञानम् अपि] अज्ञानरूप या ज्ञानरूप [कुर्वन्] करता हुआ [ आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात्] आत्मा अपने ही भाव का कर्ता है, [परभावस्य] परभाव का कर्ता तो [क्वचित् न] कदापि नहीं है ।