(वसन्ततिलका)
जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव
कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशंक यैव ।
एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय
संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ ॥63॥
अन्वयार्थ : '[यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति] यदि पुद्गलकर्म को जीव नहीं करता [तर्हि] तो फिर [तत् कः कुरुते] उसे कौन करता है ?' [इति अभिशंक या एव] ऐसी आशंका कर के, [एतर्हि] अब [तीव्र-रय-मोह-निवर्हणाय] तीव्र वेगवाले मोह का (कर्तृकर्मत्वके अज्ञानका) नाश करने के लिये, यह कहते हैं कि [पुद्गलकर्मकर्तृ संकीर्त्यते] 'पुद्गलकर्म का कर्ता कौन है'; [शृणुत] इसलिये (हे ज्ञानके इच्छुक पुरुषों !) इसे सुनो ।