(शार्दूलविक्रीडित)
आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना
सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ।
विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान्
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ॥93॥
अन्वयार्थ : [नयानां पक्षैः विना] नयों के पक्षों के रहित, [अचलं अविकल्पभावम्] अचल निर्विकल्पभाव को [आक्रामन्] प्राप्त होता हुआ [यः समयस्य सारः भाति] जो समय का (आत्मा का) सार प्रकाशित होता है [सः एषः] वह यह समयसार (शुद्ध आत्मा)[निभृतैः स्वयम् आस्वाद्यमानः] जो कि निभृत (निश्चल, आत्मलीन) पुरुषों के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है ( – अनुभव में आता है) वह — [विज्ञान-एक-रसः भगवान्] विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, [पुण्यः पुराणः पुमान्] पवित्र पुराण पुरुष है; चाहे [ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं] ज्ञान कहो या दर्शन वह यह (समयसार) ही है; [अथवा किम्] अथवा अधिक क्या कहें? [यत् किंचन अपि अयम् एकः] जो कुछ है सो यह एक ही है ( – मात्र भिन्न-भिन्न नाम से कहा जाता है)