(शार्दूलविक्रीडित)
दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् ।
विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ॥94॥
अन्वयार्थ : [तोयवत्] जैसे पानी अपने समूह से च्युत होता हुआ दूर गहन वन में बह रहा हो उसे दूर से ही ढालवाले मार्ग के द्वारा अपने समूह की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये; तो फिर वह पानी, पानी को पानी के समूह की ओर खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर, अपने समूह में आ मिलता है; इसीप्रकार [अयं] यह आत्मा [निज-ओघात् च्युतः] अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत होकर [भूरि-विकल्प-जाल-गहने दूरं भ्राम्यन्] प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर परिभ्रमण कर रहा था उसे [दूरात् एव] दूरसे ही [विवेक-निम्न-गमनात्] विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा [निज-ओघं बलात् नीतः] अपने विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिए [तद्-एक-रसिनाम्] केवल विज्ञानघन के ही रसिक पुरुषों को [विज्ञान-एक-रसः आत्मा] जो एक विज्ञानरसवाला ही अनुभव में आता है ऐसा वह आत्मा, [आत्मानम् आत्मनि एव आहरन्] आत्मा को आत्मा में ही खींचता हुआ (अर्थात् ज्ञान ज्ञान को खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर), [सदा गतानुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है ।