स्पर्शरसगंधवर्णैः शब्दैर्मुक्तो निरंजनः स्वात्मा ।
तेन च खैरग्राह्योऽसावनुभावनागृहीतव्यः ॥4॥
स्पर्श रस गन्ध वर्ण शब्द विहीन अंजन रहित निज ।
आतम अगोचर इन्द्रियों से, आत्मभावन से ग्रहण ॥४॥
अन्वयार्थ : यह स्वात्मा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दों से रहित है, निरंजन है । इसलिये किसी इन्द्रिय द्वारा गृहीत न होकर अनुभव से - इसका ग्रहण होता है ।