+ संयोग और संयोगी भावों से भिन्न अपना स्वरूप -
सप्तानां धातूनां पिंडो देहो विचेतनो हेयः ।
तन्मध्यस्थोऽवैतीक्षतेऽखिलं यो हि सोहं चित् ॥5॥
आजन्म यदनुभूतं तत्सर्वं यः स्मरन् विजानाति ।
कररेखावत् पश्यति सोऽहं बद्धोऽपि कर्मणाऽत्यंतं ॥6॥
श्रुतमागमात् त्रिलोकत्रिकालजं चेतनेतरं वस्तु ।
यः पश्यति जानाति च सोऽहं चिद्रूपलक्षणो नान्यः ॥7॥
नित सात धातु पिण्ड तन, चेतन रहित है हेय ही ।
तन में रहे सब देखे जाने, मैं यही चिद्रूप ही ॥५॥
जो जन्म से अनुभूत सबको, जानता है याद कर ।
वह गाढ़ कर्मों से बँधा भी, देखता कररेखवत् ॥६॥
सब चित् अचित् वस्तु, त्रिलोक त्रिकाल आगम से सुनीं ।
जो जाने देखे वही मैं, चिद्रूप लक्षण अन्य नहिं ॥७॥
अन्वयार्थ : यह शरीर शुक्र रक्त मज्जा आदि सात धातुओं का समुदाय स्वरूप है। चेतना शक्ति से रहित और त्यागने योग्य है, एवं जो इसके भीतर समस्त पदार्थों को देखने जानने वाला है, वह मैं आ्रात्मा हूँ ॥५॥
जन्म से लेकर मरण तक जो पदार्थ अनुभवे हैं उन सबको स्मरण कर हाथ की रेखाओं के समान जो जानता देखता है वह ज्ञानावरण आदि कर्मों से कड़ी रीति से जकड़ा हुआ भी मैं वास्तव में शुद्ध-चिद्रूप ही हुं ॥६॥
तीन लोक और तीनों कालों में विद्यमान चेतन और जड़ पदार्थों को आगम से श्रवणकर जो देखता जानता है वह चेतन्यरूप लक्षण का धारक मैं स्वात्मा हूं । मुझ सरीखा अन्य कोई नहीं हो सकता ॥७॥