+ शुद्ध-चिद्रूप के प्राप्ति की अपात्रता और पात्रता -
असौ अनेकरूपोऽपि स्वभावादेकरूपभाग् ।
अगम्यो मोहिनां शीघ्रगम्यो निर्मोहिनां विदां ॥16॥
यों विविध रूपी तथापि, इक रूप सतत स्वभाव से ।
नहिं ज्ञात मोही को सुशीघ्र, ज्ञात ज्ञ बिन मोह से ॥१६॥
अन्वयार्थ : यद्यपि यह चिदानंद स्वरूप आत्मा अनेक स्वरूप है तथापि स्वभाव से यह एक ही स्वरूप है / जो मूढ़ है -- मोह की श्रंखला से जकड़े हुए हैं, वे इसका जरा भी पता नहीं लगा सकते; परन्तु जिन्होंने मोह को सर्वथा नष्ट कर दिया है, वे इसका बहुत जल्दी पता लगा लेते हैं ।