
ज्ञेयं दृश्यं न गम्यं मम जगति किमप्यस्ति कार्यं न वाच्यं
ध्येयं श्रव्यं न लभ्यं न च विशदमतेः श्रेयमादेयमन्यत् ।
श्रीमत्सर्वज्ञवाणीजलनिधिमथनात् शुद्धचिद्रूपरत्नं
यस्माल्लब्धं मयाहो कथमपि विधिनाऽप्राप्तपूर्वंप्रियं च ॥19॥
जो अनादि से नहीं पाया, भाग्य से चिद्रूप ही ।
यह शुद्ध रत्न मुझे मिला, सर्वज्ञ-वाणी जलनिधि ॥
के मथन से अतएव जग में, अन्य कुछ भी है नहीं ।
मुझ विशद धी को श्रेय, ध्येय वाच्य कार्य रहा नहीं ॥
नहिं शेष अब कुछ ज्ञेय दृश्य, न गम्य श्रव्य न लभ्य ही ।
मैं स्वयं को कर ग्रहण स्व में, तृप्त नित संतुष्ट भी ॥१९॥
अन्वयार्थ : भगवान सर्वज्ञकी वाणीरूपी समुद्र के मंथन करने से मैंने बड़े भाग्य से शुद्ध चिद्रूपरूपी रत्न प्राप्त कर लिया है और मेरी बुद्धि पर-पदार्थों को निज न मानने से स्वच्छ हो चुकी है, इसलिये अब मेरे लिये संसार में कोई पदार्थ न जानने लायक रहा और न देखने योग्य, ढूँढने योग्य, कहने योग्य, ध्यान करने योग्य, सुनने योग्य, प्राप्त करने योग्य, आश्रय करने योग्य, और ग्रहण करने योग्य ही रहा; क्योंकि यह शुद्धचिद्रूप अप्राप्त पूर्व और अतिप्रिय है ।