+ शुद्ध चित् रूप को धारण करने की पात्रता -
शुद्धचिद्रूपरूपोहमिति मम दधे मंक्षु चिद्रूपरूपं
चिद्रूपेणैव नित्यं सकलमलमिदा तेनचिद्रूपकाय ।
चिद्रूपाद् भूरिसौख्यात् जगति वरतरात्तस्य चिद्रूपकस्य
माहात्म्यं वैति नान्यो विमलगुणगणे जातु चिद्रूपकेऽज्ञात् ॥20॥
मैं शुद्ध चिद्रूपी स्वयं, चिद्रूप द्वारा सकल मल ।
भेदक सतत चिद्रूप ही, धारूँ सदा चिद्रूपमय ॥
परिपूर्ण सौख्य स्वरूप-भर, चिद्रूप से जग में नहीं ।
है श्रेष्ठ कोई अन्य उस, चिद्रूप का माहात्म्य ही ॥
जाने नहीं जो विमल-गुण, गण शुद्ध चिद्रूपत्व में ।
हैं अज्ञ कैसे पाएंगे वे, नहीं लगते इसी में ॥२०॥
अन्वयार्थ : शुद्धचित्स्वरूपी मैं, समस्त दोषों के दूर करने वाले चित्स्वरूप के द्वारा चिदरूप की प्राप्ति के लिये सौख्य के भंडार और परम पावन चिद्रूप से अपने चिद्रूप को धारण करता हूँ। मुझसे भिन्न अन्य मनुष्य, उसके विषय में अज्ञानी, न उद्यम कर सकता है और न उसे धारण ही कर सकता है। 'मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ', ऐसा चिद्रूप का मुझे ज्ञान है और उसके माहात्म्य को भी भलेप्रकार समझता हूँ, इसलिये उसके द्वारा उससे उसकी प्राप्ति के लिये मैं उसे धारण करता हूँ; किन्तु जो मनुष्य चिद्रूप का ज्ञान नहीं रखता और चिद्रूप के माहात्म्य को भी नहीं जानता, वह उसे धारण भी नहीं कर सकता ॥२०॥