
स कोपि परमानन्दश्चिद्रूपध्यानतो भवेत् ।
तदंशोपि न जायेत त्रिजगत्स्वामिनामपि ॥4॥
चिद्रूप के सुध्यान से, जो परम आनन्द प्रगट हो ।
नहिं त्रिजग स्वामी इन्द्र आदि, को कभी कुछ अंश हो ॥२.४॥
अन्वयार्थ : शुद्धचिद्रूपके ध्यान से वह एक अद्वितीय और अपूर्व ही आनन्द होता है कि जिसका अंश भी तीन जगत के स्वामी इन्द्र आदि को प्राप्त नहीं हो सकता ।