+ 'शुद्ध चित् रूप मैं हूँ' इस स्मरण के लाभ -
वृतं शीलं श्रुतं चाखिलखजयतपोदृष्टिसद्भावनाश्च
धर्मो मूलोत्तराख्या वरगुणनिकरा आगसां मोचनं च ।
बाह्यांतः सर्वसंगत्यजनमपि विशुद्धांतरगं तदानी-
मूर्मीणां चोपसर्गस्य सहनमभवच्छुद्धचित्संस्थितस्य ॥6॥
नित शुद्ध चिद्रूप में मगन, व्रत शील श्रुत पा हो जयी ।
सब इन्द्रियों का तप सुदृष्टि सुभावना मूलोत्तरी ॥
उत्तम गुणों धर्मादिमय, सब पाप नाशक त्याग कर ।
सब परिग्रहों का हो विशुद्ध, उपसर्ग बहुविध सहन कर ॥२.६॥
अन्वयार्थ : जो महानुभाव शुद्धचिद्रूप में स्थित है उसके सम्यक्चारित्र, शील और शास्त्र की प्राप्ति होती है, इन्द्रियों का विजय होता है, तप, सम्यग्दर्शन, उत्तम भावना और धर्म का लाभ होता है, मूल और उत्तररूप कहलाते उत्तमगुण प्राप्त होते हैं, समस्त पापों का नाश, बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह का त्याग और अन्तरंग विशुद्ध हो जाता है एवं वह नानाप्रकार के उपसर्गों की तरंगों को भी झेल लेता है ।