
तीर्थेषूत्कृष्टतीर्थं श्रुतिजलधिभवं रत्नमादेयमुच्चैः
सौख्यानां वा निधानं शिवपदगमने वाहनं शीघ्रगामि ।
वात्यां कर्मोधरणो भववनदहने पावकं विद्धि शुद्ध-
चिद्रूपोहं विचारादिति वरमतिमन्नक्षराणां हि षटकं ॥7॥
'मैं शुद्ध ही चिद्रूप नित', धीमान ऐसा ध्या सतत ।
सर्वोत्कृष्ट सुतीर्थ तीर्थों में जिनागम जलधि नित ॥
उत्पन्न उत्तम ग्राह्य, रत्न निधान सौख्य सुवेग मय ।
वाहन सदा शिवपद गमन में, कर्म धूली को पवन ॥
भववन दहन में तीव्र अग्नि, जान यह षट् अक्षरी ।
मैं शुद्ध चिद्रूपी सदा, ध्या इसे ही रह मगन भी ॥२.७॥
अन्वयार्थ : हे मतिमन् ! 'शुद्धचिद्रूपोऽहं' मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ, ऐसा सदा तुझे विचार करते रहना चाहिये; क्योंकि 'शुद्धचिद्रूपोहं' ये छह अक्षर संसार से पार करने वाले समस्त तीर्थों में उत्कृष्ट तीर्थ हैं । शास्त्ररूपी समुद्र से उत्पन्न हुये ग्रहण करने के लायक उत्तम रत्न हैं। समस्त सुखों के विशाल खजाने हैं । मोक्ष-स्थान ले जाने के लिये बहुत जल्दी चलने वाले वाहन हैं । कर्मरूपी धूलि के उड़ाने के लिये प्रबल पवन हैं और संसाररूपी वन को जलाने के लिये जाज्वल्यमान अग्नि हैं ।