
निधानानां प्राप्तिर्न च सुरकुरुरुहां कामधेनोः सुधा-
याश्चिंतारत्नानामसुरसुरनराकाशगेर्शे दिराणां ।
खभोगानां भोगावनिभवनभुवां चाहमिंद्रादिलक्ष्म्या
न संतोषं कुर्यादिह जगति यथा शुद्धचिद्रूपलब्धिः ॥10॥
बहु निधानों की प्राप्ति कल्पतरु सुधा चिन्तामणि ।
सुर असुर नर विद्याधराधिप, लक्ष्मी अहमिन्द्र की ॥
नित कामधेनु भोगभूमि, भोग तृप्त करें नहीं ।
पर शुद्ध चिद्रूपी की लब्धि, करे नित सन्तुष्ट ही ॥२.१०॥
अन्वयार्थ : यद्यपि अनेक प्रकार के निधान , कल्पवृक्ष, कामधेनु, अमृत, चिन्तामणि रत्न, सुर, असुर, नर और विद्याधरों के स्वामियों की लक्ष्मी, भोगभूमियों में प्राप्त इन्द्रियों के भोग और अहमिन्द्र आदि की लक्ष्मी की प्राप्ति संसार में संतोष सुख प्रदान करने वाली है; परन्तु जिसप्रकार का संतोष शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति से होता है, वैसा इन किसी से नहीं होता ।