
ना दुर्वणों विकर्णो गतनयनयुगो वामनः कुब्जको वा
छिन्नघ्राणः कुशब्दो विकलकरयुतो वाग्विहीनोऽपि पंगुः ।
खंजो निःस्वोऽनधीतश्रुत इह बधिरः कुष्ठरोगादियुक्तः
श्लाध्यः चिद्रूपचिंतापरः इतरजनो नैव सुज्ञानवद्भिः ॥11॥
हो भले काला कूवड़ा, अंधा दरिद्री मूर्ख भी ।
नकटा कुवादी कुष्ट रोगी, गूंगा बहरा पंगु भी ॥
कर-हीन बौना आदि विकलांगी प्रशंसा योग्य ही ।
नित ज्ञानिओं से यदी वह, चिद्रूप ध्याता, अन्य नहिं ॥२.११॥
अन्वयार्थ : जो पुरुष शुद्धचिद्रूप की चिन्ता में रत है-सदा शुद्धचिद्रूप का विचार करता रहता है वह चाहे दुर्वर्ण , कबरा , अंधा, बौना, कुबड़ा, नकटा, कुशब्द बोलनेवाला, हाथ रहित-ठूंठा, गूंगा, लूला, गंजा, दरिद्र, मूर्ख, बहरा और कोढ़ी आदि कोई भी क्यों न हो विद्वानों की दृष्टि में प्रशंसा के योग्य है । सब लोग उसे आदरणीय दृष्टि से देखते हैं; किन्तु अन्य सुन्दर भी मनुष्य यदि शुद्धचिद्रूप की चिन्ता से विमुख है तो उसे कोई अच्छा नहीं कहता ।