दिव्येन ध्वनिना येत कालादौ धर्मवृत्तये ।
लोकालोकपदार्थौघा विश्वतत्त्वादिभिः समम्‌ ॥2॥
प्रोक्ता आर्यगणेशादीनग्रजं तं जिनेशिनाम् ।
विश्वार्च्यं विश्वकर्तारं धर्मचक्राधिपं स्तुवे ॥3॥
अन्वयार्थ : जिन्होंने युग के प्रारम्भ में ( तृतीयकाल के अन्त में ) धर्म की प्रवृत्ति चलाने के लिये दिव्यध्वनि के द्वारा आर्यगणधरादिकों को समस्त तत्वों के साथ लोक अलोक के पदार्थ समूह का उपदेश दिया था, जो अन्य तेईस तीर्थंकरों के अग्रज थे, विश्व के द्वारा पूजनीय थे, कर्मभूमि की व्यवस्था करने से विश्व के कर्ता और धर्म चक्र के अधिपति थे उन प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की स्तुति करता हूँ ॥२-३॥