प्रीणयित्त्वा जगद्भव्यान् यो ज्ञानामृतवर्षण: ।
विश्वमुद्योतयामास कृत्स्नाङ्गपूर्वभाषणै ॥4॥
जगदानन्दकर्त्तारं धर्मामृतपयोधरम् ।
नौमि चन्द्रप्रभं तं च योगिज्योतिर्गणावृत्तम् ॥5॥
अन्वयार्थ : जिन्होंने ज्ञानरूप अमृत की वर्षा से जगत्‌ के भव्यजीवों को संतुष्ट किया, सम्पूर्ण अङ्ग और पूर्व के व्याख्यानों द्वारा जगत्‌ को प्रकाशित किया, जो सर्व प्रकार से जगत्‌ में आनन्द के कर्ता एवं धर्मामृत को बरसाने के लिये मेघ स्वरूप हैं, तथा जो योगिराजरूप ज्योतिष्क देवों से सदा घिरे रहते हैं ऐसे उन चन्द्रप्रभ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥४-५॥