यो दिव्यध्वनिनोच्छिद्य मोहस्मराक्षतस्करान् ।
कषायशन्रुभिः सार्द्धं व्यधाच्छान्ति जगत्सताम्॥6॥
त कामचक्रितीर्थेश-पदत्रितयभागिनम्।
अनन्तर्द्धि गुणाम्भोधिम् स्तौमि कर्मारिशान्तये ॥7॥
अन्वयार्थ : जिन्होंने अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा जगत् के भव्यजीवों के कषायरूप शत्रुओं के साथ साथ काम, मोह और इन्द्रियरूप चोरों का विनाश किया और उन्हें शान्ति प्रदान की, तथा जो काम-देव, चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर इन तीन पदों के भोक्ता हुये हैं, जो अनन्तऋद्धियों एवं गुणों के समुद्र हैं ऐसे उन सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ भगवान् को मैं अपने ज्ञानावरणादि रूप कर्मशत्रुओं का विनाश करने के लिये नमस्कार करता हूँ ॥६-७॥