धर्मादयो हि हितहेतुतया प्रसिद्धा,
धर्मार्द्धनं धनत ईहितवस्तुसिद्धि ।
बुद्ध्वेति मुग्ध! हितकारि विधेहि पुण्यं,
पुण्यैर्विना न हि भवन्ति समीहितार्था ॥३॥
अन्वयार्थ : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - ये वास्तव में स्पष्टत: जीव के हित के निमित्तरूप से लोक में प्रसिद्ध है। अभ्युदय और नि:श्रेयस के कारणभूत धर्म से इन्द्रियसुख की प्राप्ति का कारणभूत धन प्राप्त होता है (और) धन से वांछित वस्तु की प्राप्ति होती है -- ऐसा जानकर हे विवेकरहित हित के अनुष्ठान में रत जीव ! निर्दोष पुण्य का उपार्जन कर । विविध प्रकार के अभ्युदय सुख को देने वाले पुण्य के उदय के बिना भलीभाँति चाहे गये पदार्थ प्राप्त नहीं होते हैं ।