प्रारभ्यते भुवि बुधेन धियाऽधिगम्य,
तत्कर्म येन जगतोऽपि सुखोदय स्यात् ।
कृष्यादिकं पुनरिद विदधासि यत्वम,
स्वस्यापि रे ! विपुल दु:खफल न किं तत् ॥5॥
अन्वयार्थ : निजनिरंजन परमात्मा के परिज्ञान के धनी पुरुष के द्वारा विवेकरूपी उपकरण से 'इससे अवश्य ही स्वर्ग व मोक्षरूप फल प्राप्त होगा' -- ऐसा जानकर लोक में प्रारम्भ किया जाता है। यह निजात्मा का अनुष्ठान से उत्पन्न, जिससे जगत् के जीवों के भी चार सौ गव्यूति तक सुभिक्षता का कारणरूप होने से सुख का उदय होता है। तुम फिर जो यह प्रत्यक्षीभूत कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि क्रिया-व्यापार को अत्यन्त आग्रह से 'करता हूँ' -- ऐसा कहते हो रे ! स्वयं भी अत्यन्त दुःखरूपी फल के अलावा भी कुछ होता है क्या ?