वार्त्तापि किं न तव कर्णमुपागतेयम्,
पात्रे रतिं स्थिरतया न गता कदाचित् ।
चापल्यतोऽपि जितसरुव नितम्बिनि श्री,
तस्या कथ बत कृती विदधाति संगम् ॥7॥
अन्वयार्थ : चंचलता से जिसने जगत् की समस्त सुन्दर स्त्रियों को जीत लिया है, ऐसी लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल व सद्गुणों से युक्त पात्र व्यक्ति में, इतना होने पर भी, दृढ तन्मयता से सन्तुष्टि को प्राप्त नही हुई है -- यह कथन तुम्हारे कान में स्पृष्ट भी नही हुआ है क्या ? , उस लक्ष्मी के सहवास / सान्निध्य को मेरे जैसे विवेकीजन, अत्यन्त खेद है, कैसे सहन करते है ?