रत्नार्थिनी यदि कथं जलधिं विमुंचेत्,
रूपार्थिनी च पंचशरं कथं वा ?
दिव्योपभोगनिरता यदि नैव शक्रम्,
कृष्णाश्रयादवगता न गुणार्थिनी श्री ॥8॥
अन्वयार्थ : यदि पद्मरागादि अमूल्य मणियों में निरत रहती रत्नाकर को क्यों छोडती ? सुन्दर रंग-रूप पर आसक्त मन वाली थी कामदेव को फिर क्यों छोडती ? कल्पवृक्ष से उत्पन्न दिव्य भोग-उपभोग में मग्न रहने का आग्रह था देवेन्द्र का साथ नही छोडना था । कृष्ण का आश्रय लेने से यह जान लिया गया है कि गुणों को चाहने वाली नहीं है ।