सत्वाधिकोऽपि सुमहानपि शीतलोऽपि,
मुक्त श्रिया चपलया जलधिर्ययेह ।
तस्या कृते कथममी कृतिनोऽपि लोका,
क्लेशं ज्वलज्ज्वलनमाशु विशंति केचित् ॥9॥
अन्वयार्थ : शक्ति में अधिक होकर भी, अत्यन्त बडप्पनयुक्त होकर भी, ठंडे स्वभाव वाला होकर भी समुद्र के समान पुरुष, जिस चपला लक्ष्मी के द्वारा छोड दिया गया है, ऐसी लक्ष्मी के संयोग के लिए कैसे प्रत्यक्षरूप, विवेकयुक्त होकर भी प्रभाकर-भट्ट आदि ये पण्डितजन धन कमाने के प्रयत्नों से उत्पन्न दु:खरूपी अत्यधिक प्रज्वलित अग्नि में शीघ्रता से प्रविष्ट हो जाते हैं !