सत्यं समस्ति सुखसल्पमिहेहितार्थै,
ईहापि तेन तव तेषु सदेति वेद्मि ।
तेषां यदर्जनवियोगज - दु:खजालम्,
तस्यथावधिं बहुधियापि न हन्त वेद्मि ॥10॥
अन्वयार्थ : चेष्टित पदार्थों से अल्पपरिमाण में सांसारिक सुख सत्य है, इन पदार्थों में तुम्हारी सदैव चेष्टा भी बनी रहती है यह भी मैं जानता हूँ, किन्तु उन इन्द्रिय-विषयों में संग्रह के वियोग से होने वाले दु:ख के समूह की सीमा को, विविध प्रकार की बुद्धि से समन्वित होकर भी, हे भाई, मैं नही जानता हूँ ।