निर्बाधमाधिरहितं विधुताघसंघम्,
यद्यस्ति नापरमपारममारसौख्यम् ।
एवविधेऽपि मतिमानपि शर्मणीत्थम्,
बुद्धिं करोतु पुरुषो वद कोऽत्र दोषं ॥11॥
अन्वयार्थ : बाधारहित, मानसिक पीडावर्जित, निराकृतप्रतिपक्षभूतकर्मसमूह वाला, उत्कृष्ट, अनन्तरूप क्या निज-परमात्मा में नही होता है ? अस्थिर, अतृप्तिकर तथा बंध के कारणभूत ऐसे सांसारिक सुख में मतिमान् सत्युरुष भी बुद्धि करें -- कहो, क्या इसमें दोष है?