+ स्वानुभूति से उत्पन्न होनेवाले आनन्द की महिमा -- -
आस्तां समस्तमुनिसंस्तुतमस्तमोहम्‌,
सौख्यं सखे ! विगतखेदमसंख्यमेतत्‌ ।
निस्संगिनां प्रशमजं यदिहापि जातम्,
तस्यांशतोऽपि सदृशं स्मरजं न जातु ॥12॥
अन्वयार्थ : सकल मुनिगणों के द्वारा स्तूयमान, विनष्टमोहवाला, विरहजनितखेद से रहित, गणनातीतरूप यह परम-सुख, अरे प्रिय मित्र, उसकी चर्चा बन्द करो। सम्पूर्ण परिग्रह से निर्मुक्त व्यक्तियों का उपशमभाव से उत्पन्न होनेवाला जो सहजसुख है (वह) इस पंचम काल में भी उत्पन्न हुआ है। मनो जनित (मानसिक-विषयजन्य) सुख इस स्वानुभूतिजन्य सुख के अनन्तवें हिस्से में रहनेवाली समानता को प्राप्त करनेवाला कभी भी नही हो सकता है ।