+ अब अनंतसुख की प्राप्ति कैसे अशक्य है और कबतक ? -
अज्ञाननाम तिमिरप्रसरोऽयमन्त,
सन्दर्शितोऽखिलपदार्थ विपर्ययात्मा ।
मन्‍त्री स मोहनृपते स्फुरतीह यावत्,
तावत्‌ कुतस्तव शिव तदुपायता वा ॥13॥
अन्वयार्थ : अज्ञानरूपी अन्धकार का प्रसार यह अन्तरंग में दिखलाया गया है। जीवादि सम्पूर्ण पदार्थों से विपरीत स्वरूपवाला बुद्धिसहायक (अर्थात्‌ मंत्री) वह, दर्शन व चारित्र मोहनीयरूप राजा का, ऐसा अज्ञान नामक अद्वितीय (मंत्री) स्फुरायमान है यहाँ जबतक, तबतक तुम्हारे लिए परमसुख अथवा उस परमसुख के हेतुभूत भेदा-भेदात्मक रत्नत्रय की आराधना कहाँ (संभव है) ?