+ शरीर की अपवित्रता -
किं चाशुचौ शुचि-सुगन्धि-रसादिवस्तु,
यस्सिन्‌ गतं नरकृतां समुपैति सद्य ।
ररम्यते तदपि मोहवशाच्छरीरं,
सर्वैरहो विजयते महिमा परोऽस्य ॥14॥
अन्वयार्थ : पवित्र एवं सुगन्धित ऐसी रसादि वस्तु जिस किसी शरीर में डाली जाती है, कैसी अशुचिता है कि वह उसी समय नरकावस्था को प्राप्त हो जाती है। (तथापि) चारित्रमोह के वश होकर पुन: (उसी शरीर को ऐसा जानते हुए भी) स्वयं अतिशयपूर्वक रमण किया जाता है। आश्चर्य है, इस मोह की उत्कृष्ट महिमा हर तरह से विजयी हो रही है !