अज्ञानमोहमदिरा परिपीय मुग्धम्,
हा हन्त ! हन्ति परिवल्गति जल्पतीष्टम् ।
पश्येदृश जगदिदं पतितं पुरस्ते,
किं कूर्दसे त्वमपि बालिश ! तादृशोऽपि ॥16॥
अन्वयार्थ : हेय और उपादेय के भेदज्ञान से रहित व्यक्ति की तरह विपरीत ज्ञान से उन्मत्तपने को प्राप्त होकर दर्शन व चारित्रमोहनीय नामक मदिरा का आकण्ठ पान करके, कष्ट है, अरे अज्ञानी ! निश्चयनय की अपेक्षा सत्त्व के परिज्ञानरूप चैतन्य आदि निजजीवगत भावप्राणों का तथा व्यवहार से अन्य जीवों का घात करता है, गम्य-अगम्य आदि विषयक्षेत्रों मे भटकता रहता है, न बोलने योग्य-ऐसी बातों को पसन्द करता है। अपने सामने दुर्दशा को प्राप्त इस ऐसे जग को देखो । क्यो इठला रहे हो ? तुम भी अज्ञानियों के समान अत्यन्त बालबुद्धि ।