बैरी ममायमहमस्य कृतोपकार:,
इत्यादि दुःखघनपावकपच्यमानम्‌ ।
लोक विलोक्य न मनागपि कंपसे त्वम्,
क्रन्दं कुरुस्व बत तादृश कूर्दसे किम् ? ॥17॥
अन्वयार्थ : 'यह मेरा शत्रु है (अथवा) मैं इसके द्वारा किये गये उपकार को मानता हूँ' -- इत्यादि रूप संकल्पजन्य दुख की अत्यन्त भयंकर आग से जलने वाले अज्ञानी जगत्‌ को देखकर किंचित्‌ मात्र भी नही काँपते हो ? तुम (तो) भय से क्रन्‍दन करो । हाय! अज्ञानी जनों की भाँति अपने आप को भूलकर (इस दुखमय संसार मे ही संतुष्ट होकर प्रसन्नता से) क्यों नाच रहे हो ?