नो जीयते जगति केनचिदेष मोह,
इत्याकुल किपसि सम्प्रति रे ! वयस्य ।
एकोऽपि कोऽपि पुरत स्थितशत्रु सैन्यम्,
सत्त्वाधिको जयति, शोचसि किं मुधा त्वम् ॥18॥
अन्वयार्थ : 'नही जीता जायेगा लोक में किसी के भी द्वारा यह मोहनीय कर्म' इस प्रकार से आकुलित चित्त वाले क्यों हुए हो? अभी यहाँ तो अरे प्रिय मित्र! अधिक बलशाली अकेला भी कोई व्यक्ति सामने खड़ी हुई शत्रु की सेना को जीत लेगा । तुम व्यर्थ क्यों दु:खी हो रहे हो ?