मुक्त्वाऽलसत्वमधिसत्त्वं-बलोपपन्न,
स्मृत्वा परा च समतां कुलदेवतां त्वम् ।
सज्ज्ञानचक्रमिदमग ! गृहाण तूर्णम्,
अज्ञानमंत्रियुतमोहरिपूपमर्दि ॥19॥
अन्वयार्थ : आलस्य भाव को छोडकर निज परमात्म-तत्त्व के ज्ञान रूपी सेना से युक्त होकर समता रूपी कुलदेवता का स्मरण करके विपरीत ज्ञान रूपी मंत्री के साथ-साथ मोहनीय जैसे शत्रु को भी पीडित कर सकते हो । हे पुत्र ! सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र-रत्न को तुम शीघ्रता से ग्रहण करो ।