+ चारित्र की आराधना के बिना सुख संभव नहीं -
वाञ्छा सुखे यदि सखे ! तदवैमि नाहम्‌,
धर्मादृते भवति सोऽपि न यावदेते ।
रागादयस्तदशनं समतात एव,
तस्माद्‌ विधेहि हृदि तां सततं सुखाय ॥23॥
अन्वयार्थ : अरे मित्र ! सुख में यदि इच्छा हुई है (तो वह सुख) रत्नत्रयात्मक धर्म (की प्राप्ति) के बिना प्राप्त नहीं हो (सकता है) मैं यह जानता हूँ । (और) जबतक वे रागादिक समाप्त नहीं होते, तबतक (धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती)। इन रागादिकों का विनाश समता से ही होगा । इस कारण से (सुख के लिए) निरन्तर इस समता को मन में घारण करो ।