मैत्री-कृपा-प्रमुदिता-शुभगागनानाम्,
शुभ्राभ्रसन्निभमन सदने निवासम्‌ ।
त्वं देहि ता हि समताभिमता सखीत्वात्,
एवं न कोऽपि भुवनेऽपि तवास्ति शत्रु ॥25॥
अन्वयार्थ : (सम्पूर्ण प्राणियों के लिए शांतिकारक चिन्तन वाली) मैत्री, (दीनों पर अनुग्रह-भावरूप) कृपा, (श्रेष्ठ गुणों में अनुरागरूप) प्रमोदभावरूपी सौभाग्यशालिनी स्त्रियों के लिए श्रेष्ठ निर्मल आकाश के समान अपने मनरूपी मकान में रहनेयोग्य स्थान तुम दो (ऐसी स्त्रियों को मामूली नौकरानी मत समझो) । वे (मैत्री-कृपा-प्रमुदिता रूपी स्त्रियाँ) वस्तुत: अभिन्न सख्यभाव होने से (सखी के रूप में) समतारूपी सुन्दरी के लिए स्वीकृत हैं । ऐसा करने पर समस्त लोक में भी तुम्हारे लिए कोई भी शत्रु नहीं (रहेगा)